SHANI DEV VRAT KATHA
श्री शनिवार व्रत कथापूर्वकाल में इस पृथ्वी पर एक राजा राज्य करता था। उसके पुत्र का नाम धर्मगुप्त था। उसने अपने शत्रुओं को अपने वश में कर लिया । दैव गति से राजा और राजकुमार पर शनि की दशा आई । राजा को उसके शत्रुओं ने मार दिया । राजकुमार भी बेसहारा हो गया । राजगुरु को भी शत्रुओं ने मार दिया । उसकी विधवा ब्राह्मणी तथा उसका पुत्र शुचिव्रत रह गया । ब्राह्मणी ने राजकुमार धर्मगुप्त को अपने साथ ले लिया और अपने पुत्र को साथ लेकर नगर को छोड़कर चल दी ।
गरीब ब्राह्मणी दोनों कुमारो का बहुत कठिनाई से निर्वाह कर पाती थी । कभी किसी शहर में और कभी किसी नगर में दोनों कुमारों को लिए घूमती रहती थी । एक दिन वह ब्राह्मणी जब दोनों कुमारों को लिए एक नगर से दूसरे नगर में जा रही थी कि उसे मार्ग में महर्षि शांडिल्य के दर्शन हुए । ब्राह्मणी ने दोनों बालकों के साथ मुनि के चरणों मे प्रणाम किया और बोली- महर्षि! मैं आज आपके दर्शन कर कृतार्थ हो गई । यह मेरे दोनों कुमार आपकी शरण है, आप इनकी रक्षा करें । मुनिवर ! यह शुचिव्रत मेरा पुत्र है और यह धर्मगुप्त राजपुत्र है और मेरा धर्मपुत्र है । हम सभी घोर दारिद्रय में पड़े हुये हैं, आप हमारा उद्धार कीजिए। मुनि शांडिल्य ने ब्राह्मणी की सब बात सुनी और बोले-देवी! तुम्हारे ऊपर शनिदेव का प्रकोप है। अतः आप शनिवार के दिन व्रत करके भगवान शिवजी की आराधना किया करो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा ।
ब्राह्मणी और दोनों कुमार मुनि को प्रणाम कर शिव मंदिर के लिए चल दिए । शनिवार के दिन दोनों कुमारों ने मुनि के उपदेश अनुसार शनि का व्रत किया तथा पीपल के वृक्ष की पूजा करके शिवजी का पूजन किया. इस प्रकार दोनों कुमारों को शनिवार का व्रत करते-करते चार मास व्यतीत हो गये।
एक दिन शुचिव्रत स्नान करने के लिए गया । उसके साथ राजकुमार नहीं था । कीचड़ में उसे एक बहुत बड़ा कलश दिखाई दिया । शुचिव्रत ने उसको उठाया और देखा तो उसमें धन था । शुचिव्रत उस कलश को लेकर घर आया और मां से बोला- हे मां! शिवजी ने इस कलश के रुप में धन दिया है।
माता ने आदेश दिया- बेटा! तुम दोनों इसको बांट लो । मां का वचन सुनकर शुचिव्रत बहुत ही प्रसन्न हुआ और धर्मगुप्त से बोला- भैया! अपना हिस्सा ले लो । परंतु शिवभक्त राजकुमार धर्मगुप्त ने कहा-मां! मैं हिसा लेना नहीं चाहता, क्योंकि जो कोई अपने सुकृत से कुछ भी पाता है, वह उसी का भाग है और उसे आप ही भोगना चाहिये । भोलेश्वर शिवजी मुझ पर भी कभी कृपा करेंगे ।
तत्पश्चात् धर्मगुप्त प्रेम और भक्ति के साथ शनि का व्रत करके पूजा करने लगा । इस प्रकार उसे एक वर्ष व्यतीत हो गया । बसंत ऋतु का आगमन हुआ । राजकुमार धर्मगुप्त तथा ब्राह्मण पुत्र शुचिव्रत दोनों ही वन में घूमने गए । दोनों वन में घूमते-घूमते काफी दूर निकल गए । उनको वहां सैकड़ों गंधर्व कन्याएं खेलती हुई मिलीं । ब्राह्मण कुमार बोला- भैया! चरित्रवान पुरुषों को चाहिए कि वे स्त्रियों से बचकर रहें । ये मनुष्य को शीघ्र ही मोह लेती हैं । विशेष रूप से ब्रह्मचारी को स्त्रियों से न तो भाषण करना व मिलना नही चाहिये चाहिए। परन्तु गंधर्व कन्याओं के बीच एक प्रधान सुन्दरी उस राजकुमार को देखकर मोहित हो गई और अपने संग की सखियों से बोली कि यहाँ से थोड़ी दूर पर एक सुन्दर वन है, उसमें नाना प्रकार के सुन्दर फ़ूल खिलें हैं तुम सब जाकर उन सब सुन्दर फ़ूलों को तोड़कर ले आओ. तब तक मैं यहाँ बैठी हूँ. सखियाँ आज्ञा पाकर चली गई और वह सुन्दर गंधर्व कन्या राजकुमार पर दृष्टि जमाकर बैठ गई।
उसे अकेला देखकर राजकुमार भी उसके पास चला आया। राजकुमार को देखकर गंधर्व कन्या उठी और बैठने के लिए पल्लवों का आसन दिया । राजकुमार आसन पर बैठ गया । गंधर्व कन्या ने पूछा- आप कौन है? किस देश के रहने वाले हैं तथा आपका आगमन कैसे हुआ है? राजकुमार ने कहा- मैं विदर्भ देश के राजा का पुत्र हूं, मेरा नाम धर्मगुप्त है । मेरे माता-पिता स्वर्गलोक सिधार चुके हैं । शत्रुओं ने मेरा राज्य छीन लिया है । मैं राजगुरु की पत्नीर के साथ रहता हूं, वह मेरी धर्म माता हैं । फिर राजकुमार ने उस गंधर्व कन्या से पूछा- आप कौन है? किसकी पुत्री हैं और किस कार्य से यहां पर आपका आगमन हुआ है?
गंधर्व कन्या बोली- विद्रविक नामक गंधर्व की मैं पुत्री हूं । मेरा नाम अंशुमति है। आपको आता देख आपसे बत करने की इच्छा हुई, इसी से मैं सखियों को अलग भेजकर अकेली रह गई हूं । गंधर्व कहते हैं कि मेरे बराबर संगीत विद्या में कोई निपुण नहीं है । भगवान शंकर ने हम दोनों पर कृपा की है, इसलिए आपको यहां पर भेजा है । अब से लेकर मेरा-आपका प्रेम कभी न टूटे । ऐसा कहकर कन्या ने अपने गले का मोतियों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया ।
राजकुमार धर्मगुप्त ने कहा- मेरे पास न राज है, न धन । आप मेरी भार्या कैसे बनेंगी? आपके पिता है, आपने उनकी आज्ञा भी नहीं ली । गंधर्व कन्या बोली- अब आप घर जाएं और परसों प्रातःकाल यहां आएं, आपकी आवश्यकता होगी। राजकुमार से ऐसा कहकर गंधर्व कन्या अपनी सहेलियों के पास चली गई । राजकुमार धर्मगुप्त शुचिव्रत के पास चला आया और उसे सब समाचार कह सुनाया । फ़िर दोनों ने सम्पूर्ण समाचार अपनी माँ को जाकर बता दिया.
उसके बाद से तीसरे दिन शुचिव्रत को साथ लेकर राजकुमार धर्मगुप्त उसी वन में गया । उसने देखा कि स्वयं गंधर्वराज विद्रविक उस कन्या को साथ लेकर उपस्थित हैं। गंधर्वराज ने दोनों कुमारों का अभिवादन किया और दोनों को सुंदर आसन पर बिठाकर राजकुमार से कहा राजकुमार! मैं परसों कैलाश पर गौरी शंकर के दर्शन करने गया था । वहां करुणारूपी सुधा के सागर भोले शंकरजी महाराज ने मुझे अपने पास बुलाकर कहा- गंधर्वराज! पृथ्वी पर धर्मगुप्त नाम का राजभ्रष्ट राजकुमार है। उसके परिवार के लोगों को बैरियों ने समाप्त कर दिया है । वह बालक गुरु के कहने से शनिवार का व्रत करता है और सदा मेरी सेवा में लगा रहता है । तुम उसकी सहायता करो, जिससे वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके। गौरीशंकर की आज्ञा को शिरोधार्य करके मैं अपने घर को चला आया । घर पर मेरी पुत्री अंशुमति ने भी ऐसी ही प्रार्थना की । शिवशंकर की आज्ञा तथा अंशुमति के मन की बात जानकर मैं ही इसको इस वन में लाया हूं । मैं इसे आपको सौंपता हूं । मैं आपके शत्रुओं को परास्त कर आपको आपका राज्य दिला दूंगा ।
ऐसा कहकर गंधर्वराज ने अपनी कन्या का विवाह राजकुमार के साथ कर दिया तथा अंशुमति की सहेली की शादी ब्राह्मण कुमार शुचिव्रत के साथ कर दिया। राजकुमार की सहायता के लिए गंधर्वों की चतुरंगिणी सेना भी दी । धर्मगुप्त के शत्रुओं ने जब यह समाचार सुना तो उन्होने राजकुमार क अधीनता स्वीकार कर ली और राज्य भी लौटा दिया । धर्मगुप्त सिंहासन पर बैठा । उसने अपने धर्म भाई शुचिव्रत को मंत्री नियुक्त किया । जिस ब्राह्मणी ने उसे पुत्र की तरह पाला था, उसे राजमाता बनाया । इस प्रकार शनिवार के व्रत के प्रभाव और शिवजी की कृपा से धर्मगुप्त फिर से विदर्भराज हुआ ।
श्रीकृष्ण भगवान बोले- हे पांडुनंदन! आप भी यह व्रत करें तो कुछ समय बाद आपको राज्य प्राप्त होगा और सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होगी । आपके बुरे दिनों की शीघ्र समाप्ति होगी ।
युधिष्ठिर ने शनिवार व्रत की कथा सुनकर श्रीकृष्ण भगवान की पूजा की और व्रत आरंभ किया । इसी व्रत के प्रभाव से महाभारत में पांडवोंने द्रोण, भीष्म और कर्ण जैसे महारथियों को परास्त किया- सबसे बढ़कर उन्हें श्रीकृष्ण जैसा योग्य सारथी मिला तथा छिना हुआ राज्य प्राप्त कर वर्षों तक उसका सुख भोगा और फिर देह त्यागकर स्वर्ग की प्राप्ति की ।