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SATYANARAYAN KATHA

सत्यनारायण व्रत कथा

पूजन सामग्री:
केले के खम्बे, कलश, पाँच रत्न,चावल, धुप, पुष्प माला, अंग वस्त्र, नैवैध्य, आम के पत्ते, वस्त्र, सोने की प्रतिमा, कपूर, गुलाब के फूल, दीप, तुलसी, पान, पंचामृत(घी, दही, शहद, तुलसी का पत्ता, शक्कर), प्रसाद (आटे, घी और शक्कर से बना)व्रत करने वाला पूर्णिमा,संक्रांत या एकादसी के दिन,संध्या स्नान आदि से निवृत्त होकर,पूजा स्थान में आसन पर बैठकर और श्री गणेश,गौरी,वरुण,विष्णुजी आदि नव देवताओं का ध्यान करके,पूजन करे और संकल्प करे कि मैं श्री सत्यनारायण स्वामी का पूजन तथा श्रवण सदैव करुँगा| पुष्प हाथों में लेकर,श्री सत्यनारायण स्वामी का ध्यान करे|पुष्प,धुप,दीप,नैवेद्य आदि से युक्त होकर स्तुति करें|'हे भगवन,मैंने श्रद्धा पूर्वक फल,जल,आदि सब सामग्री आपको अर्पण की है;इसे स्वीकार कीजिये,आपदाओं से मेरी रक्षा कीजिये, मेरा आपको बारम्बार नमस्कार है| इसके बाद श्री सत्यनारायण की कथा पढ़े अथवा श्रवण करें|
कथा
पहला अध्याय
एक समय नेमिशारणय तीर्थ में शौनिक आदि अठासी हज़ार ऋषियों ने श्री सूतजी से पूछा- "हे प्रभु! इस कलयुग में विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा? इसलिए हे मुनिश्रेष्ठ, कोई ऐसा तप कहिये जिस से थोड़े समय में पुण्य प्राप्त हो तथा मनोवांछित फल मिले| सर्वशास्त्रज्ञाता श्री सूतजी बोले, "हे वैष्णवों में पूज्य- आप सब ने सर्व प्राणियों के हित की बात पूछी है | अब में उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगो में कहूँगा, जिस व्रत को नारदजी ने श्री लक्ष्मीनारायण से पूछा था और श्री लक्ष्मीपति ने मुनि श्रेष्ठ नारद से कहा था,सो ध्यान से सुनिये|
मुनिनाथ सुनो यह सत्यकथा सब कालहिं होय महासुखदाई | ताप हरे, भाव दूर करे, सब काज सरे सुख की अधिकाई ||
अति संकट में दुःख दूर करे सब ठौर कुठौर में होत सुहाई | प्रभु नाम चरित गुणगान किये बिन कैसे महाकलि पाप नसाई ||
एक समय,योगीराज नारद जी दूसरों के हित की इच्छा से, अनेक लोकों में घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुँचे| वहाँ बहुत योनियों में जन्मे हुए प्रायः सभी मनुष्यों को अपने कर्मों के द्वारा अनेक दुखों से पीड़ित देखकर किस यत्न के करने से निश्चय ही इनके दुखों का नाश हो सकेगा, ऐसा मन में सोचकर विष्णुलोक को गये | वहाँ श्वेत वर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को (जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे, तथा वनमाला पहने हुए थे) देखकर स्तुति करने लगे | "हे भगवन, आप अत्यंत शक्ति से संपन्न हैं | मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती, आपका आदि, मध्य और अंत नहीं है, निर्गुण स्वरुप श्रृष्टि के आदि, भूत व भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हैं, आपको मेरा नमस्कार है |" नारदजी से इस प्रकार स्तुति सुनकर विष्णु भगवान बोले कि "हे मुनिश्रेष्ठ-आपके मन में क्या है? आपका यहाँ किस काम के लिए आगमन हुआ है? निःसंकोच कहो|" तब नारदमुनि बोले, "मृत्यु लोक में सब मनुष्य जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने अपने कर्मों के द्वारा अनेक प्रकार के दुखों से दुखी हो रहे हैं| हे नाथ, मुझपर दया रखते हैं तो बतलायें कि उन मनुष्यों के सब दुःख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते हैं?" श्री विष्णु भगवानजी बोले कि "हे नारद, मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने यह बहुत अच्छी बात पूछी| जिस काम के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है, वह मै कहता हूँ, सुनो| बहुत पुण्य का देने वाला, स्वर्ग तथा मनुष्य लोक दोनों में दुर्लभ एक व्रत है | आज में प्रेमवश तुमसे कहता हूँ | श्री सत्यनारायणजी का व्रत अच्छी तरह विधान पूर्वक करके मनुष्य तुरंत ही यहाँ सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है |" श्री विष्णु भगवान के वचन सुनकर नारद जी ने पुछा कि उस व्रत का क्या फल है, क्या विधान है, और किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए, कृपा करके विस्तार से बताइए| श्री विष्णु भगवान ने कहा, "दुःख शोक आदि को दूर करने वाला, धन धान्य को बढ़ाने वाला, सौभाग्य तथा संतान को देने वाला, सब स्थानों पर विजय करने वाला, श्री सत्यनारायण व्रत है | भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन, मनुष्य श्री सत्यनारायण की शाम के समय, ब्राह्मणों और बंधुओ के साथ धर्मपरायण होकर पूजा करे. भक्ति भाव से नैवद्य, केले का फल, शहद, घी, शक्कर अथवा गुड़, दूध, और गेहूं का आटा सवाया लेवे (गेंहू के अभाव में साठी का चूरन भी ले सकते है )| इन सबको भक्ति भाव से भगवान् को अर्पण करें| बन्धुबांधवों सहित ब्राह्मणों को भोजन करावे | इसके पश्चात् स्वयं भोजन करें | रात्रि में नाम संकीर्तन का आयोजन कर श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करता हुआ समय व्यतीत करे | इस तरह जो मनुष्य व्रत करेगे, उनका मनोरथ निश्चय ही पूर्ण होगा. हे भक्तराज ! तुमसे तो विकराल कलिकाल के कर्म छिपे नहीं है | खान-पान और आचार-विचार को चाहते हुए भी पवित्रता न रख पाने के कारण, क्योकि जीव मेरा नाम स्मरण करके ही अपना लोक-परलोक संवार सकेंगे, इसलिए विशेष रूप से कलिकाल में मृत्युलोक में यही एक लघु और आसान उपाय है, जिससे अल्प समय और अल्प धन में प्रत्येक जीव को महान पुण्य प्राप्त हो सकता है |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का प्रारंभ अध्याय सम्पूर्ण ||
द्वितीय अध्याय
सूतजी ने कहा- हे ऋषियों, जिन्होंने पहले समय में इस व्रत को किया है , उनका इतिहास कहता हूँ, आप सब ध्यान से सुने | सुंदर काशीपुर नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था| वह ब्राह्मण भूख और प्यास से बैचैन होकर नित्य पृथ्वी पर घूमता था| ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले श्री विष्णु भगवान् ने ब्राह्मण को दुखी देखकर एक दिन बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर निर्धन ब्राह्मण के पास जाकर आदर से पूछा - हे विप्र ! तुम नित्य ही दुखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हो? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण यह सब मुझे कहो, मै सुनना चाहता हूँ | दरिद्र ब्राह्मण ने कहा - मै निर्धन ब्राह्मण हूँ, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूँ| हे भगवन् यदि आप इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय जानते हो तो कृपा कर मुझे बताएं | मै आपकी शरण में हूँ | वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किये श्री विष्णु भगवान् ने कहा - हे ब्राह्मण! श्री सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं. इसीलिए तुम उनका पूजन करो, जिसके करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त हो जाता है| इसी के साथ दरिद्र ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बतलाकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले श्री सत्यनारायण भगवान् अंतर्ध्यान हो गए| जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण ने बताया है, उसे मै अवश्य करूँगा, यह सोचकर वह दरिद्र ब्राह्मण घर चला गया, परन्तु उस रात्रि उस ब्राह्मण को नींद नहीं आई | अगले दिन वह जल्दी उठा और श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करने का निश्चय कर भिक्षा मांगने चल दिया| उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला, जिससे उसने पूजा का सब सामान ख़रीदा और घर आकर अपने बन्धु-बांधवों के साथ भगवान् श्री सत्यनारायण का व्रत किया | इसके करने से वह दरिद्र ब्राह्मण सब प्रकार के दुखों से छूटकर अनेक प्रकार की संपत्तियों से युक्त हो गया | उस समय से वह विप्र हर मास व्रत करने लगा | सत्यनारायण भगवान् के व्रत को जो शास्त्रविधि के अनुसार श्रद्धा पूर्वक करेगा, सब पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा | आगे जो मनुष्य पृथ्वी पर भगवान् सत्यनारायण का व्रत करेगा, वह सब दुखों से छूट जायेगा | इस तरह नारदजी से श्री सत्यनारायण भगवान् का कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा | हे विप्रों, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं, मुझे बताएं? ऋषियों ने कहा - हे मुनीश्वर ! संसार में इस विप्र से सुनकर और किस किस ने इस व्रत को किया, हम सब सुनना चाहते है | इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा है | श्री सूतजी ने कहा - हे मुनियों ! जिस जिस प्राणी ने इस व्रत को किया है उन सबकी कथा सुनो | एक समय वह ब्राह्मण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बंधु- बांधवों के साथ अपने घर पर व्रत कर रहा था| उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बुढा व्यक्ति वहाँ आया| उसने सर पर रखा लकड़ियों का गट्ठर बाहर रख दिया और विप्र के घर में चला गया | प्यास से दुखी लकडहारे ने विप्र को व्रत करते देखा | वह प्यास को भूल गया | उसने विप्र को नमस्कार किया और पूछा - हे विप्र ! आप यह किसका पूजन कर रहे हैं? इस व्रत को करने से क्या फल मिलता है? कृपया मुझे बताएं | ब्राह्मण ने कहा - सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह भगवान् श्री सत्यनारायण का व्रत है इनकी ही कृपा से मेरे यहाँ धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई है | विप्र से इस व्रत के बारे में जानकर वह लकडहारा बहुत प्रसन्न हुआ | भगवान् का चरणामृत ले और भोजन करने के पश्चात् वह अपने घर को चला गया | अगले दिन लकडहारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज गाँव में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा, उसी से भगवान् सत्यनारायण का उत्तम व्रत करुँगा | यह मन में विचार कर वह लकडहारा अपने सर पर लकड़ियों का गट्ठर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, ऐसे सुंदर नगर में गया | उस दिन उसे उन लकड़ियों का दाम पहले के दिनों से चौगुना मिला | तब वह लकड़हारा अति प्रसन्न होकर पके केले, शक्कर, शहद, घी, दूध, दही, गेहूं का चूर्ण आदि श्री सत्यनारायण भगवान् के व्रत की सारी सामग्री लेकर अपने घर पर आ गया | फिर उसने अपने बंधु-बांधवों को बुलाकर विधि-विधान के साथ भगवान् का पूजन और व्रत किया | उस व्रत के प्रभाव से वह बुढा लकडहारा धन, पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुंठ को चला गया |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का द्वितीय अध्याय सम्पूर्ण ||
तृतीय अध्याय
श्री सूतजी ने कहा - हे श्रेष्ठ ऋषियों ! अब आगे की एक कथा कहता हूँ | पूर्व काल में उल्कामुख नाम का एक महान बुद्धिमान राजा था | वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था | प्रतिदिन देवस्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था | उनकी पत्नी कमल के समान मुख वाली और सती साध्वी थी | भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों ने श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत किया | उस समय वहां साधु नामक एक वैश्य आया | उसके पास व्यापार के लिए बहुत-सा धन था | वह वैश्य नाव को किनारे पर ठहराकर राजा के पास आया | राजा को व्रत करते देखकर उसने विनय के साथ पूछा - हे राजन ! भक्ति युक्त चित्त से यह आप क्या कर रहे हैं ? मेरी भी सुनने की इच्छा है, कृप्या यह आप मुझे भी बताइए | महाराजा उल्कामुख ने कहा - हे साधु वैश्य ! मै अपने बंधु-बांधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए महाशक्तिमान सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ | राजा के वचन सुनकर साधु नामक वैश्य ने आदर से कहा - हे राजन ! मुझे भी इसका विधान बतायें | मै भी आपके कथनानुसार इस व्रत को करूँगा | मेरे भी कोई संतान नहीं है | मुझे विश्वास है, इससे निश्चय ही मेरी भी संतान होगी | राजा से सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह वैश्य आनंद के साथ अपने घर आया | वैश्य ने अपनी पत्नी को संतान देने वाले उस व्रत का समाचार सुनाया और प्रण किया कि जब मेरी भी संतान होगी तब मै इस व्रत को करूँगा | साधु ने यह वचन अपनी पत्नी लीलावती से भी कहे | एक दिन उसकी पत्नी लीलावती आनंदित हो सांसारिक धर्म की प्रवृत्त हो श्री सत्यनारायण भगवान् की कृपा से गर्भवती हो गयी | दसवें महीने में उसने सुंदर कन्या को जन्म दिया | दिनोंदिन वह कन्या इस तरह बढ़ने लगी जैसे शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है | कन्या का नाम कलावती रखा गया | तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को स्मरण दिलाया कि आपने जो भगवान् का व्रत करने का संकल्प किया था अब आप उसे पूरा कीजिये | साधु वैश्य ने कहा- हे प्रिये ! मै कन्या के विवाह के समय इस व्रत को करूँगा| इसप्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह व्यापार करने चला गया| कलावती पितृ गृह में वृद्धि को प्राप्त हो गई | लौटने पर जब साधु ने नगर में सखियों के साथ अपनी पुत्री को खेलते देखा तो दूत को बुलाकर कहा कि उसकी पुत्री के लिए कोई सुयोग्य वर देखकर लाओ | साधु नामक वैश्य की आज्ञा पाकर दूत कंचन नगर पहुंचा और खोजकर और देखभाल कर वैश्य की लड़की के लिए एक सुयोग्य वाणिक पुत्र ले आया| उस सुयोग्य लड़के को देखकर साधु नामक वैश्य ने अपने बंधु-बांधवों सहित प्रसन्नचित्त होकर अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया | दुर्भाग्य से वह विवाह के समय भी श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करना भूल गया | इसपर श्री सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो गए | उन्होंने वैश्य को श्राप दिया की तुम्हे दारुण दुःख प्राप्त होगा | अपने कार्य में कुशल साधु नामक वैश्य अपने जामाता सहित नावों को लेकर व्यापार करने के लिए समुन्द्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नगर में गया | दोनों ससुर-जमाई चंद्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे | एक बार सत्यनारायण भगवान् की माया से प्रेरित एक चोर राजा का धन चुराकर भगा जा रहा था | राजा के दूतों को अपने समीप वेग से आते देखकर चोर ने घबराकर राजा के धन को वही नाव में चुपचाप रख दिया, जहा वे ससुर-जमाई ठहरे हुए थे और भाग गया | जब दूतों से उस साधु नामक वैश्य के पास उस धन को रखा देखा तो ससुर-जामाता दोनों को बांधकर ले गए और राजा के समीप जाकर बोले - हम ये दो चोर पकड़कर लायें है, देखकर आज्ञा दें | तब राजा ने बिना उनकी बात सुने ही उन्हें कारागार में डालने की आज्ञा दे दी | इसप्रकार राजा की आज्ञा से उन्हें कठिन कारावास में डाल दिया गया और उनका धन भी छीन लिया गया| सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण लीलावती और उसकी पुत्री कलावती भी घर पर बहुत दुखी हुई | उनका धन भी चोर चुरा कर ले गए | शारीरिक और मानसिक पीड़ा से तथा भूख-प्यास से अति दुखित हो भोजन की चिंता में कलावती कन्या एक ब्राह्मण के घर गई| उसने ब्राह्मण को भी सत्यनारायण भगवान् का व्रत करते देखा| उसने कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई| माता ने कलावती से पूछा-हे पुत्री! तू अब तक कहाँ रही व तेरे मन में क्या है ? कलावती बोली - हे माता ! मैंने आज एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत होते देखा है | कन्या के वचन सुनकर लीलावती ने सत्यनारायण भगवान के पूजन की तैयारी की | उसने परिवार और बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान् का व्रत एवं पूजन किया और वर माँगा कि मेरे पति और दामाद शीघ्र ही घर लौट आयें | साथ ही प्रार्थना की कि हमारे सरे अपराध क्षमा कर दो | श्री सत्यनारायण भगवान् इस व्रत से संतुष्ट हो गए | उन्होंने राजा चंद्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा- हे राजन ! जिन दोनों वैश्यों को तुमने बंदी बना रखा है, वे निर्दोष हैं | उन्हें प्रात: ही छोड़ दो | उनका सब धन जो तुमने ग्रहण किया है, लौटा दो | अन्यथा मैं तुम्हारा धन, पुत्रादि सब नष्ट कर दूंगा | राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान् अंर्तध्यान हो गए | प्रातः काल राजा चंद्रकेतु ने सभा में सबको अपना स्वप्न सुनाया और सैनिको को आज्ञा दी कि दोनों वणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाया जाया | दोनों ने आते ही राजा को प्रणाम किया| राजा ने कोमल वचनों में कहा- हे महानुभावों ! तुम्हे भावावेश ऐसा कठिन से कठिन दुःख प्राप्त हुआ है | अब तुम्हे कोई भय नहीं है, तुम मुक्त हो | इसके बाद राजा ने उनको नए - नए वस्त्राभूषण पहनवायें तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दूना लौटा कर आदर से विदा किया | दोनों वैश्य अपने घर को चल दिए |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का तृतीय अध्याय सम्पूर्ण ||
चतुर्थ अध्याय
श्री सूतजी ने आगे कहा - वैश्य ने मंगलाचार करके यात्रा आरम्भ की और अपने नगर को चला| उनके थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर दंडी वेशधारी श्री सत्यनारायण भगवान् ने उससे पूछा - हे साधु ! तेरी नाव में क्या है अभिमानी वणिक हँसता हुआ बोला- हे दंडी ! आप क्यों पूछते है ? क्या धन लेने की इच्छा है ? मेरी नाव में बेल पत्रादि भरे हुए है | वैश्य के कठोर वचन सुनकर दंडी वेशधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने कहा- तुम्हारा वचन सत्य हो ! ऐसा कहकर वे वहां से चले गए और कुछ दूर जाकर समुन्द्र के किनारे बैठ गए | दंडी महाराज के जाने के पश्चात् वैश्य ने नित्यक्रिया से निवृत होने के बाद नाव को ऊँची उठी देखकर अचम्भा किया तथा नाव में बेल पत्ते आदि देखकर मूर्छित हो धरती पर गिर पड़ा | मूर्छा खुलने पर अत्यंत शोक प्रकट करने लगा | तब उसके जमाता ने कहा - आप शोक न करें | यह दंडी महाराज का श्राप है | अतः उनकी शरण में ही चलना चाहिए, तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी | जमाता के वचन सुनकर वह साधु नामक वैश्य साधु महाराज के पास पहुंचा और अत्यंत भक्ति-भाव से प्रणाम करके बोला- मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे, उनके लिए मुझे क्षमा करें | ऐसा कहकर महान शोकातुर हो रोने लगा | तब दंडी भगवान् बोले - हे वाणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से बार- बार तुझे दुःख प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ है | साधु नामक वैश्य ने कहा - हे भगवान् ! आपकी माया से ब्रह्मा आदि देवता भी आपके रूप को नहीं जान पाते, तब मै अज्ञानी भला कैसे जान सकता हूँ | आप प्रसन्न होइए, मै आपनी सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूँगा | मेरी रक्षा करो और पहले के समान मेरी नौका को धन से पूर्ण कर दो| उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर श्री सत्यनारायण भगवान् प्रसन्न हो गए और उसकी इच्छानुसार वर देकर अंतर्ध्यान हो गए | तब ससुर और जमाता दोनों ने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है | फिर वह भगवान् सत्यनारायण का पूजन कर साथियों सहित अपने नगर को चला | जब वह अपने नगर के निकट पहुंचा तब उसने एक दूत को अपने घर भेजा | दूत ने साधु नामक वैश्य के घर जाकर उसकी पत्नी को नमस्कार किया और कहा- आपके पति अपने दामाद सहित इस नगर के समीप आ गए है | लीलावती और उसकी कन्या कलावती उस समय भगवान का पूजन कर रही थीं | दूत का वचन सुनकर साधु की पत्नी ने बड़े हर्ष के साथ सत्यदेव का पूजन पूर्ण किया और अपनी पुत्री से कहा- मै अपने पति के दर्शन को जाती हूँ, तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ जाना | परन्तु कलावती पूजन और प्रसाद छोड़कर अपने पति के दर्शन को चली गई | प्रसाद कि अवज्ञा के कारन सत्यदेव ने रुष्ट हो, उसके पति को नाव सहित पानी में डूबा दिया | कलावती अपने पति को न देखकर रोती हुई जमीन पर गिर पड़ी | नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोती हुई देखकर साधु नामक वैश्य दुखित हो बोला- हे प्रभु ! मुझसे या मेरे परिवार से जो भूल हुई है, उसे क्षमा करो | उसके दीन वचन सुनकर सत्यदेव भगवान प्रसन्न हो गए | आकाशवाणी हुई- हे वैश्य ! तेरी कन्या मेरा प्रसाद छोड़कर आई है, इसलिए इसका पति अद्रश्य हुआ है | यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटे तो इसका पति अवश्य मिलेगा | आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुँच कर प्रसाद खाया और फिर अपने पति के दर्शन किये | तत्पश्चात साधू वैश्य ने वहीँ बंधु-बांधवों सहित सत्यदेव का विधि-पूर्वक पूजन किया | वह इस लोक का सुख भोगकर अंत में स्वर्गलोक को गया |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का चतुर्थ अध्याय सम्पूर्ण ||
पंचम अध्याय
श्री सूतजी ने आगे कहा - हे ऋषियों ! मैं एक और भी कथा कहता हूँ, सुनो - प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था | उसने भगवान् सत्यदेव का प्रसाद त्यागकर बहुत दुःख पाया | एक समय राजा वन में वन्य पशुओं को मारकर बड़ के वृक्ष के नीचे आया | वहां उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से बंधु-बांधवों सहित श्री सत्यनारायण जी पूजन करते देखा | परन्तु राजा देखकर भी अभिमानवश न तो वहां गया और न ही सत्यदेव भगवान् को नमस्कार किया | जब ग्वालों ने भगवान् का प्रसाद उसके सामने रखा तो वह प्रसाद त्यागकर अपने नगर को चला गया | नगर में पहुंचकर उसने देखा कि उसका सब कुछ नष्ट हो गया है | वह समझ गया कि भगवान् सत्यदेव ने ही किया है | तब वह उसी स्थान पर वापस आया और ग्वालों के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया | तो सत्यनारायण भगवान् कि कृपा से सबकुछ पहले जैसा ही हो गया और दीर्घ काल तक सुख भोगकर मरने पर स्वर्गलोक को चला गया | जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा , श्री सत्यनारायण भगवान् की कृपा से उसे धन- धान्य की प्राप्ति होगी | बंदी बंधन से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है | संतानहीन को संतान प्राप्त होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में वह बैकुंठ धाम को जाता है | जिन्होने पहले इस व्रत को किया अंत में उनके दूसरे जन्म की कथा भी सुनिए | शतानंद नामक वृद्ध ने भी इस व्रत को किया, जिसने सुदामा के रूप में जन्म लेकर श्री कृष्ण की भक्ति कर मोक्ष प्राप्त किया | उल्कामुख नामक महाराज इस व्रत के पुण्य से राजा दशरथ बने और श्री रंगनाथ का पूजन कर मृत्यु के बाद बैकुंठ को प्राप्त हुए | साधु नामक वैश्य ने सत्यप्रतिज्ञ राजा मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष प्राप्त किया | वह भी इसी व्रत का फल था | इसी तरह महाराज तुंगध्वज स्वयंभू मनु हुए जिन्होंने बहुत से लोगों को भगवान् की भक्ति में लीन कर मोक्ष प्राप्त किया | लकडहारा भील अपने अगले जन्म में गुह नामक निषाद राजा हुआ, जिसने भगवान् राम के चरणों की सेवाकर मोक्ष प्राप्त किया |
|| इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का पंचम अध्याय सम्पूर्ण ||
श्री सत्यनारायण भगवान की आरती
जय लक्ष्मीरमणा, श्री जय लक्ष्मीरमणा । सत्यनारायण स्वामी, जनपातक हरणा ॥ ॐ जय… रत्न जड़ित सिंहासन, अद्भुत छवि राजे । नारद करत निराजन, घंटा ध्वनि बाजे ॥ ॐ जय… प्रगट भये कलि कारण, द्विज को दरश दियो। बूढ़ो ब्राह्मण बनकर, कंचन महल कियो ॥ ॐ जय… दुर्बल भील कठारो, इन पर कृपा करी। चंद्रचूड़ एक राजा, जिनकी विपत्ति हरी ॥ ॐ जय… वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीनी । सो फल भोग्यो प्रभुजी, फिर स्तुति कीनी ॥ ॐ जय… भाव भक्ति के कारण छिन-छिन रूप धरयो । श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो ॥ ॐ जय… ग्वाल बाल संग राजा, वन में भक्ति करी ॥ मनवांछित फल दीन्हो, दीनदयाल हरी ॥ ॐ जय… चढ़त प्रसाद सवाया, कदली फल मेवा ॥ धूप दीप तुलसी से, राजी सत्यदेवा ॥ ॐ जय… सत्यनारायण की आरति, जो कोइ नर गावे । कहत शिवानंद स्वामी, वांछित फल पावे ॥ ॐ जय…

 

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