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SURYA DEV BHAGWAN

रविवार व्रतकथा

प्राचीन काल में कंचनपुर में एक बुढ़िया रहती थी। रविवार के दिन गोबर से अपने घर को लीपना उस बुढ़िया का अटल नियम था. वह बुढ़िया रविवार को दिन भर निराहार व्रत रहकर शाम को अन्न-निर्मित खाद्य तथा फ़ल भगवान सूर्यदेव को अर्पित करती तथा उस प्रसाद को सूर्यास्त होने से पहले ही धारण कर लेती थी. भगवान सूर्यदेव की अनुकम्पा से थोड़े ही दिनों में बुढ़िया का घर धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया. उस बुढ़िया की आर्थिक दशा में प्रगति देखकर उसकी एक पड़ोसिन उससे उससे जलन करने लगी. उसकी पड़ोसन अपने मन में सोचने लगी कि मेरी गाय के गोबर से अपने घर को लीपने-पोतने के कारण ही बुढ़िया समृद्धशाली बन गयी है. अब उसकी पड़ोसिन अपनी गाय का गोबर बुढ़िया को नही देना चाहती थी. इसलिये वह अपनी गाय को घर के भीतर ही बाँधे रखती.
दूसरे रविवार के दिन अपना घर लीपने के लिये बुढ़िया गोबर न पा सकी, इसलिये उसे बड़ी असुविधा हुई. अपने नियम में बाधा पड़ने के कारण वह बुढ़िया बहुत उदास हो गयी. मानसिक चिन्ता के कारण बुढिया उस दिन भगवान सूर्यदेव को कुछ भी अर्पित न कर सकी और न तो स्वयं ही प्रशाद रुप में कुछ ग्रहण किया. शाम को वह भूखी-प्यासी चिन्तातुर अवस्था में सो गई.
रात्रि में भगवान सूर्य नारायण ने उस बुढ़िया को स्वप्न में दर्शन देकर उसके दुःख का कारण पूछा. बुढ़िया ने दुखी होकर कहा कि आज गोबर न मिलने का कारण मैं नियमानुसार आपका पूजन न कर सकी. मेरा नियम भंग हो गया. इसी एक बात से मैं अत्यन्त दुखी हूँ.
बुढ़िया की बातों से दयार्द्र होकर सूर्य भगवान ने कहा कि, मैं तुम्हें एक गाय देता हूँ. जिससे तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी. मैं तुम्हारे व्रत-पालन की निष्ठा से अत्यन्त प्रसन्न होकर तुम्हें वरदान देना चाहता हूँ. अर्थात् अब से सदैव सदैव तुम्हारा घर धन पुत्रादि से सम्पन्न रहेगा. इतना कह भगवान सूर्यदेव वहीं अन्तर्धान हो गये. सुबह उठने पर बुढिया ने अपने आँगन में एक बछड़ेवाली गाय को देखा. रात्रि में देखे हुये स्वप्न की बात बुढ़िया को याद आने लगी. बुढ़िया ने गाय को घर से बाहर बाँध कर उसके चारे की व्यवस्था की.
बुढ़िया के दरवाजे पर बँधी हुई गाय को देखकर उसकी ईर्ष्यालु पड़ोसिन के आश्चर्य का पारावार न रहा. उस गाय के स्वर्णमय गोबर के परित्याग से उसकी पडोसिन विस्मित हो गयी. उसकी पड़ोसिन ने उस स्वर्णिम गोबर के स्थान पर अपनी गाय का स्वभाविक गोबर रखकर उसे उठा लिया परन्तु बुढ़िया उसके कपट इस कपटाचरण का भेद न जान सकी.
बुढिया के इस अज्ञानता पर भगवान सूर्यदेव ने विचार किया कि, मेरी गाय से इस बुढ़िया का उपकार नही हो रहा है. इसलिये भगवान ने अपनी माया से भयंकर झंझावात (आँधी-तूफ़ान) उत्पन्न कर दिया. जिसके फ़लस्वरुप बड़े-बड़े विशाल वृक्ष भी टूट-टूट कर भूमि पर गिरने लगे. इस विनाशकारी दृश्य को देखकर बुढ़िया ने अपनी गाय को भीतर बाँध दिया. प्रातःकाल उस गाय से बुढ़िया को स्वर्णिम गोबर प्राप्त हुआ. बुढिया अत्यन्त प्रसन्न हुई और उसकी सुरक्षा के लिये नित्य ही गाय को भीतर बाँधती. बुढ़िया की सावधानी से अब उसकी पड़ोसिन का कोई वश नही चलता था.
एक दिन पड़ोसिन ने बुढ़िया की गाय छीन लेने के उद्देश्य से एक चाल चली. उसने राजा के पास उपस्थित होकर राजा से निवेदन किया कि - महाराज ! मेरी पड़ोसिन बुढ़िया के पास एक अद्भुत गाय है. जो स्वर्णमय गोबर देती है. अतः वह गाय यदि महाराज के पास रहे तो जनता को लाभ हो सकता है.
राजा ने उसके प्रलोभन में आकर अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि तुम लोग जाकर उस गाय को यहाँ लाओ. सिपाहियों ने आज्ञा का पालन किया. अब वह गाय रक्षकों की देख-रेख में रहने लगी. रक्षकों के लिये राजा की आज्ञा हुई कि कोई भी गाय का गोबर उठाकर न ले जाने पावे.
आदेश देकर राजा महल में चले गये. उस दिन की रात में राजा को प्रसन्नता के कारण नींद न आई. राजा सुबह होने की प्रतिक्षा उत्सुकता पूर्वक करने लगा. सुबह गाय के पास जाकर देखा - वहाँ स्वाभाविक गोबर के अतिरिक्त कुछ न था. राजा की क्रोधाग्नि भड़क उठी उन्होंने बुढ़िया को पकड़वा मँगाया.
राजा ने बुढिया से पूछा - क्या तुम्हारी गाय सोने का गोबर देती है? इसी बात की सूचना पर मैंने तुम्हारी गाय मँगवायी थी. फ़िर क्या कारण हैकि गाय वैसा गोबर न दे सकी? बुढ़िया ने उत्तर दिया-महाराज, गाय के गोबर से घर लीपना मेरा नित्य का काम है. मैं दिन भर व्रत रहकर सायं काल भगवान सूर्य को नैवेद्य अर्पित कर उसी प्रसाद को ग्रहण करती हूँ. मेरे पास जब अपनी गाय न थी तो मैं पड़ोसिन की गाय के गोबर से घर लीपती थी. दैवयोग से गोबर के अभाव में मैं एक दिन अपने नियम का पालन न कर सकी. उस दिन मैं रात्रि में भूखे ही सो गई. रात्रि में भगवान ने स्वप्न देकर मुझे यह प्रदान की. मेरी ईर्ष्यालु पड़ोसिन ने आपको सूचना देकर मेरी गाय मुझसे छिनवा ली. गाय के सम्बन्ध में मैं बस इतना ही जानती हूँ.
बुढ़िया की बातों से संतुष्ट होकर राजा ने कहा - बूढ़ी माँ, मुझे क्षमा करो. मैने अज्ञानतावश तुम्हारी गाय मंगा ली है. अब मैं तुम्हारी गाय तुम्हारे घर भेज देता हूँ. इस कार्य के निमित्त तुम्हारी पड़ोसिन अपराधिन है और उसे इसका दण्ड़ मिलाना चाहिये.
अपनी गाय वापिस पाकर बुढ़िया प्रसन्न होकर अपने घर चली गयी. इसके बाद राजा ने उसकी अपराधिनी पड़ोसिन को बुलवाकर उसे उचित दण्ड दिया. उस दिन से राजा ने अपने नगर में घोषणा कर दी कि रविवार के दिन सभी नगरवासी दिनभर व्रत रहकर सूर्यदेव का पूजन करें. राजा स्वयं भी रविवार व्रत के नियम पालन करने लगा. इस व्रत को करने वाले पर भगवान सूर्य प्रसन्न होकर उसे धन-धान्य से समृद्ध और सम्पूर्णं रोगों से मुक्त कर देते हैं. इस व्रत के प्रभाव से अन्धे और कुष्ठी मनुष्यों को विशेष लाभ होता है.

 

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