SUNDERKAND
सुन्दरकाण्ड
दो.- आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान ।
परूष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ।। 9 ।।
सीता तैं मम कृत अपमाना । कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना ।।
नाहिं त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि होति न त जीवन हानी ।।
स्याम सरोज दाम सम सुंदर । प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर ।।
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा । सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा ।।
चंद्रहास हरू मम परितापं । रघुपति बिरह अनल संजातं ।।
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरू मम दुख भारा ।।
सुनत बचन पुनि मारन धारा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ।।
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई
मास दिवस महुँ कहा न माना । तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना ।।
दो.- भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ।। 10 ।।
त्रिजटा नाम राच्छसी एका । राम चरन रति निपुन बिबेका ।।
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ।।
सपनें बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ।।
खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ।।
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई । लंका मनहुँ बिभीषन पाई ।।
नगर फ़िरी रघुबीर दोहाई । तब प्रभु सीता बोलि पठाई ।।
यह सपना मैं कहउँ पुकारी । होइहि सत्य गएँ दिन चारी ।।
तासु बचन सुनि ते सब डरीं । जनकसुता के चरनन्हि परीं ।।
दो.- जहँ तहँ सकल तब सीता कर मन सोच ।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ।। 11 ।।
त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी । मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ।।
तजौं देह करू बेगि उपाई । दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई ।।
आनि काठ रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहि लगाई ।।
सत्य करहि मम प्रीति सयानी । सुनै को श्रवन सुल सम बानी ।।
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ।।
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी ।।
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला । मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ।।
देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत एकउ तारा ।।