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SUNDERKAND

सुन्दरकाण्ड

जौं पै दुष्हृदय सोइ होई । मोरें सनमुख आव कि सोई ।।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा । मोहि कपट छल छिद्र न भावा ।।
भेद लेन पठवा दससीसा । तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा ।।
जग महुँ सखा निसाचर जेते । लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ।।
जौं सभीत आवा सरनाईं । रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं ।।

दो. - उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत ।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ।। 44 ।।

सादर तेहि आगें करि बानर । चले जहाँ रघुपति करूनाकर ।।
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता । नयनानंद दान के दाता ।।
बहुरि राम छबिधम बिलोकी । रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ।।
भुज प्रलंब कंजारून लोचन । स्यामल गात प्रनत भय मोचन ।।
सिंघ कंध आयत उर सोहा । आनन अमित मदन मन मोहा ।।
नयन नीर पुलकित अति गाता । नम धरि धीर कही मृदु बाता ।।
नाथ दसानन कर मैं भ्राता । निसिचर बंस जनम सुरत्राता ।।
सहज पापप्रिय तामस देहा । जथा उलूकहि तम पर नेहा ।।

दो. - श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ।। 45 ।।

अस कहि करत दंडवत देखा । तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ।।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा । भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा ।।
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी । बोले बचन भगत भय हारी ।।
कहु लंकेस सहित परिवारा । कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ।।
खल मंडली बसहु दिनु राती । सखा धरम निबहइ केहि भाँती ।।
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती । अति नय निपुन न भाव अनीती ।।
बरू भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ बिधता ।।
अब पद देखि कुसल रघुराया । जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया ।।

दो. - तब नगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम ।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धम तजि काम ।। 46 ।।

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना । लोभ मोह मच्छर मद माना ।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा । धरें चाप सायक कटि भाथा ।।
ममता तरून तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी ।।
तब लगि बसति जीव मन माहीं । जब नगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं ।।

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