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SUNDERKAND

सुन्दरकाण्ड

अब मैं कुसल मिटे भय भारे । देखि राम पद कमल तुम्हारे ।।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला । ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला ।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ । सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ।।
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा । तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा ।।

दो. - अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज ।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ।। 47 ।।

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ । जान भसुंडि संभु गिरिजाऊ ।।
जौं नर होइ चराचर द्रोही । आवै सभय सरन तकि मोही ।।
तजि मद मोह कपट छल नाना । करउँ सद्य तेहि साधु समाना ।।
जननी जनक बंधु सुत दारा । तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ।।
सब कै ममता ताग बटोरी । मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं । हरष सोक भय नहिं मन माहीं ।।
अस सज्जन मम उर बस कैसें । लोभी हृदयँबसइ धनु जैसें ।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें । धरउँ देह नहिं आन निहोरें ।।

दो. - सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम ।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ।। 48 ।।

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें । तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ।।
राम बचन सुनि बानर जूथा । सकल कहहिं जय कृपाबरूथा ।।
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी । नहिं अघत श्रवनामृत जानी ।।
पद अंबुज गहि बारहिं बारा । हृदयँ समात न प्रेमु अपारा ।।
सुनहु देव सचराचर स्वामी । प्रनतपाल उर अंतरजामी ।।
उर कछु प्रथम बासना रही । प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ।।
अब कृपाल निज भगति पावनी । देहु सदा सिव मन भावनी ।।
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा । मागा तुरत सिंधु कर नीरा ।।
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं । मोर दरसु अमोघ जग माहीं ।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा । सुमन बृष्टि नभ भई अपारा ।।

दो. - रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड ।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ।। 49 ;कद्ध ।।
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ।। 49 ;खद्ध ।।

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