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SUNDERKAND

सुन्दरकाण्ड

दो. - काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ।। 38 ।।

तात राम नहिं नर भूपाला । भुवनेस्वर कालहु कर काला ।।
ब्रह्म अनामय अज भगवंता । ब्यापक अजित अनादि अनंता ।।
गो द्विज धेनु देव हितकारी । कृपासिंधु मानुष तनुधारी ।।
जन रंजन भंजन खल ब्राता । बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ।।
ताहि बयरू तजि नाइअ माथा । प्रनतारति भंजन रघुनाथा ।।
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही । भजहु राम बिनु हेतु सनेही ।।
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा । बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ।।
जासु नाम त्राय ताप नसावन । सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ।।

दो. - बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस ।
परिहरि मान मोह मद भसजहु कोसलाधीस ।। 39 ।।
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात ।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरू तात ।। 39 ।।

माल्यवंत अति सचिव सयाना । तासु बचन सुनि अति सुख माना ।।
तात अनुज तव नीति बिभूषन । सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ।।
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ । दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ।।
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी । कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ।।
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ।।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ।।
तव उर कुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ।।
कालराति निसिचर कुल केरी । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ।।

दो. - तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार ।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ।। 40 ।।

बुध पुरान श्रुति संमत बानी । कही बिभीषन नीति बखानी ।।
सुनत दसानन उठा रिसाई । खल तोहि निकट मृत्यु अब आई ।।
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा । रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ।।
कहसि न खल अस को जग माहीं । भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं ।।
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ।।
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहिं बारा ।।

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