SUNDERKAND
सुन्दरकाण्ड
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब तें जारि गयउ कपि लंका ।।
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ।।
जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आएँ पुर कवन भलाई ।।
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी । मंदोदरी अधिक अकुलानी ।।
रहसि जोरि कर पित पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ।।
कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहू ।।
समुझत जासु दूत कइ करनी । स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी ।।
तासु नारि निज सचिव बोलाई । पठवहु कंत जो चहहु भलाई ।।
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई । सीता सीत निसा सम आई ।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें । हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ।
दो. - राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक ।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ।। 36 ।।
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी । बिहसा जगत बिदित अभिमानी ।।
सभय सुभाउ नारि कर साचा । मंगल महुँ भय मन अति काचा ।।
जौं आवइ मर्कट कटकाई । जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ।।
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा । तासु नारि सभीत बड़ि हासा ।।
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई । चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ।।
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता । भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ।।
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई । सिंधु पार सेना सब आई ।।
बूझेसि सचिव उचित मत कहहु । ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ।।
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं । नर बानर केहि लेखे माही ।।
दो. - सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज ध्र्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ।। 37 ।।
सोइ रावन कहुँ बनी सहाई । अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ।।
अवसर जानि बिभीषनु आवा । भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ।।
पुनि सिरू नाइ बैठ निज आसन । बोला बचन पाइ अनुसासन ।।
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता ।।
जो आपन चाहै कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ।।
सो परनारि लिलार गोसाईं । तजउ चउथि के चंद कि नाईं ।।
चैदह भुवन एक पति होई । भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ।।
गुन सागर नागर नर जोऊ । अलप लोभ भल कइह न कोऊ ।।