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SUNDERKAND

सुन्दरकाण्ड

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा । परतिहुँ बार कटकु संघारा ।।
तेहिं देखा कपि मुरूछित भयऊ । नागपास बाँधेसि लै गयऊ ।।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ।।
तासु दूत कि बंध तरू आवा । प्रभु कारज लहगि कपिहिं बँधावा ।।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए । कौतुक लागि सभाँ सब आए ।।
दसमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ।।
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकलन सभीता ।।
देखि प्रताप न कपि मन संका । जिमि अहिगन महुँ गरूड़ असंका ।।

दो. - कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद ।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ।। 20 ।।

कह लंकेस कवन तैं कीसा । केहि कें बल घालेहि बन खीसा ।।
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ।।
मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु सठ मोहि न प्रान कइ बाधा ।।
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया । पाइ जासु बल बिरचति माया ।।
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा।।
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन ।।
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ।।
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा । तेहि समेत नृप दल मद गंजा ।।
खर दूषन त्रिसिरा अरू बाली । बधे सकल अतुलित बलसाली ।।

दो. - जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि ।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ।। 21 ।।

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई ।।
समर बालि सन करि जसु पावा । सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ।।
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा । कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ।।
सब कें देह परम प्रिय स्वामी । मारहिं मोहि कुमारग गामी ।।
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे । तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा । कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ।।
बिनती करउँ जोरि कर रावन । सुनहु मान तजि मोर सिखावन ।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी । भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ।।
जाकें डर अति काल डेराई । जो सुर असुर चराचर खाई ।।
तासों बयरू कबहुँ नहिं कीजै । मोरे कहें जानकी दीजै ।।

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